गुरुवार, 11 मार्च 2010

कचरे में रोटी की तलाश


चले तो थे हम सफ़र में देखने की मुश्किलों में लोग कैसे जीतें हैं ?
पर उनकी मुश्किलों को देखकर लगा की इसके साथ वो कैसे जीते हैं ?
कचरे में रोटी की तलाश में दिन निकलता है, और कचरे में ही रात होती है। कई रोज़ पेट तो भर जाता है पर निगाहें उदास होती है ........क्यों ? पता नहीं।
मुलभुत सुविधाओं से वंचित इनके नरक में जीने का कौन जिम्मेदार है ? हम ये क्यूँ सोचे ?
गर ये न करे ये काम तो शहर का क्या होगा ? शायद कोई और करे पर हम तो नहीं करेंगे।
खुदके पेट के लिए ये काम करते हैं पर फायदा तो ये हम सब के लिए कर रहे हैं ।
इससे हमें क्या ? मजबूर निगाहें कई दिन कचरा न मिलने पर रोटी के इंतज़ार में भूखे भी सो जाती है .....तो हम क्या करे ?

कितने निर्दई हैं हम इनके प्रति ............इनका इस्तेमाल कर हम खुश हैं पर इन्हें इनका हक नहीं दिलाना चाहते।
खुद के अधिकार से अनजान ये लोग भी अपना हक नहीं जानते जिसका फायदा निरंतर उठाया जाता रहेगा ........तो हम आपकों घबराने की जरुरत नहीं है,क्योंकि ये बिचारे गंवार लोग इतने चलाख नहीं है की अपना शोषण रोक सके।
ध्यान से सोचे तो ये लोग जानबुझ कर ऐसा कर रहे है ताकि ये ही लोग इसमें रहे हम आप न आए तो क्या अब आपका नजरिया बदलेगा इनके प्रति ?