सोमवार, 28 दिसंबर 2009

मेरी रूह भी रही भटकती

जीते जी न सुकूं मिला,
न मर के भी चैन आया मुझको।
मेरी रूह रही भटकती,
क्यों ऐसी जगह दफनाया मुझको।
हसरत थी की उनकी बाहों में मरेंगे ,
अंत समय वो भी नसीब न आया मुझको।
सब कुछ हांसिल होकर भी ,
कुछ न मिल पाया मुझको।
ग़म से ही रिश्ता रहा जीवन भर ,
ख़ुशी ने बहुत तड़पाया मुझको।
ख़ुदसे ज़्यादा यकीं था जिसपर,
मझदार ही में छोड़ गया वो साया मुझको ।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

रूह की आवाज़

किसी ने आवाज़ दी है , मुझे दुनिया के उस पार से ,
अनजान महफ़िल में क्यों फंसे हो,
मुझे बेजान छोड़कर।
धिक्कार है ऐसे जग में जीना ,
जीते हो लोग जहाँ अपना ईमान तोड़कर।
क्यों जीते हो तुम जब मर जाते हैं ,
अपनी जमीन किसान छोड़कर।
क्या पाते हो लेकर भीख,
अपना काम छोड़कर।
बटोरा है धन जिसके लिये ,
कल आएँगे यही तुम्हे स्मशान छोड़कर।
मेरी रूह की थी ये आवाज़ मेरे मन के उस पार से .....

यथार्थ

जमीन इंसान को खा रही है ,
आसमान वक़्त को निगल रहा है.
चन्द्रमा ख़ामोश है,
क्यों सूरज निकल रहा है.
मौत गुमसुम खड़ी है
और ये जीवन चल रहा है.
हकीक़त सब सामने है,
फिर भी मन मचल रहा है.
कुछ आया हाथ में है ,
और कुछ फिसल रहा है .
सपना है दूर रात का जो,
शाम कि आँखों में पल रहा है.
ठोकर खाकर कोई गिर गया,
और कोई संभल रहा है.
समय फिर भी धीरे धीरे,
अपनी आचार गति से चल रहा है ....

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

भटका राही

हर तरफ कर्कश ध्वनि सी है ,
कुछ चहरे भी है उजड़े से.
एक पक्की सी सड़क है दूर से आती हुई,
एक राही है उस पर भटका हुआ .
अपनी धुन में चलती दुनिया को निहारता हुआ,
पूछा किसी से उसने मंज़िल का पता.
एक ने कुछ तो दूजे ने कुछ और दिया बता,
चलते चलते वो पहुंचा एक वीराने में,
उसे न मंज़िल मिली न पता.
न रुका वो न थका
चलते ही गया मंज़िल की तलाश में.
न मिली ग़र मंज़िल तो करीब,
तो पहुंचूंगा इसी आश में.
चलाना उसका व्यर्थ न हुआ ,
आख़िरकार वह समझ गया,
कि, मै ही नहीं सभी भटके है.
न चाह कर भी जीवन जाल में सभी अटके है ...

शाम और मैं

पीली मुरझाई सी शाम आज फिर,
मेरे पास आई है .
शहर से दूर किसी कसबे की छाँव में,
पत्तो के झरझरहट की आवाज़ के साथ,
पंछियों चहक चाहट के साथ ,
फूलों की खुशबु के साथ,
मिटटी में खेलते बच्चों की-
मुस्कराहट के साथ ,
पीली शाम अब केसरी हो चली,
जैसे फुल बने कोई मासूम कली.
दूर लोगों को घर जाते देख ये भी ,
जाने की बात करती है .
रात के भयानक अँधेरे से शायद ये भी
डरती है .
कल का वादा करके हम चले,
शाम तो आइ पर मैं न आ सका……..

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

मानवता ख़त्म हो गई अब.....

बेगुनाह अनमोल लहू की,
आज कोई कीमत नहीं ।
हम रहें एक होकर इस जग में,
ऐसी किसी की नियत नहीं।
आग लगी है मजहबों में,
जिसमे हमारा ईमान जल रहा है ।
न जाने कैसा सैलाब है ये,
जो विकृतों के मन में पल रहा है ।
बेगाने करें अपघात तो और बात हो,
एक भाई ही दूजे को रोज़ छल रहा है।
सुनी मांग, उजड़ा दामन अपनों के चिथड़े ,
ये अथाह पीर भरी कहानी है।
जिसपे बीती वो ही जाने,
कैसा वो ग़म था ?
अब कैसे आँखों में पानी है ।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

पतझड़ के फुल जरिये मैं अनिल सिंह आप लोगों के सामने अपनी कुछ कविताएँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ