सोमवार, 21 दिसंबर 2009

भटका राही

हर तरफ कर्कश ध्वनि सी है ,
कुछ चहरे भी है उजड़े से.
एक पक्की सी सड़क है दूर से आती हुई,
एक राही है उस पर भटका हुआ .
अपनी धुन में चलती दुनिया को निहारता हुआ,
पूछा किसी से उसने मंज़िल का पता.
एक ने कुछ तो दूजे ने कुछ और दिया बता,
चलते चलते वो पहुंचा एक वीराने में,
उसे न मंज़िल मिली न पता.
न रुका वो न थका
चलते ही गया मंज़िल की तलाश में.
न मिली ग़र मंज़िल तो करीब,
तो पहुंचूंगा इसी आश में.
चलाना उसका व्यर्थ न हुआ ,
आख़िरकार वह समझ गया,
कि, मै ही नहीं सभी भटके है.
न चाह कर भी जीवन जाल में सभी अटके है ...

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