बेगुनाह अनमोल लहू की,
आज कोई कीमत नहीं ।
हम रहें एक होकर इस जग में,
ऐसी किसी की नियत नहीं।
आग लगी है मजहबों में,
जिसमे हमारा ईमान जल रहा है ।
न जाने कैसा सैलाब है ये,
जो विकृतों के मन में पल रहा है ।
बेगाने करें अपघात तो और बात हो,
एक भाई ही दूजे को रोज़ छल रहा है।
सुनी मांग, उजड़ा दामन अपनों के चिथड़े ,
ये अथाह पीर भरी कहानी है।
जिसपे बीती वो ही जाने,
कैसा वो ग़म था ?
अब कैसे आँखों में पानी है ।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
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achha likha hain anil .....koshish karo aur bhi better ho sakta hain
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