जमीन इंसान को खा रही है ,
आसमान वक़्त को निगल रहा है.
चन्द्रमा ख़ामोश है,
क्यों सूरज निकल रहा है.
मौत गुमसुम खड़ी है
और ये जीवन चल रहा है.
हकीक़त सब सामने है,
फिर भी मन मचल रहा है.
कुछ आया हाथ में है ,
और कुछ फिसल रहा है .
सपना है दूर रात का जो,
शाम कि आँखों में पल रहा है.
ठोकर खाकर कोई गिर गया,
और कोई संभल रहा है.
समय फिर भी धीरे धीरे,
अपनी आचार गति से चल रहा है ....
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें