शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

ये वक़्त कम पड़ रहा है जिंदगी में .....

ये वक़्त का समंदर है, जो कम पड़ रहा है ज़िन्दगी में.
हौंसले बुलंद हैं पर नींद का गुलाम इंसा तड़प रहा है ज़िन्दगी में .
कुछ खुद कुछ देश के लिए करने का शोला भड़क रहा है ज़िन्दगी में .
पर खुद के वजूद से देश का अस्तित्व पिछड़ रहा है ज़िन्दगी में .
बिक जाएँगे ये चाँद तारे भी, माँ बाप की भी बोलियाँ लगेंगी ,
क्योंकि गद्दारों का वर्चस्व बढ़ रहा है ज़िन्दगी में .
किसे दोष देन किसे गुनाहगार कहें,
चंद रुपयों में ईमां, इन्सां, प्यार, वफ़ा...सब कुछ बिक रहा है ज़िन्दगी में .

ये वक़्त का समंदर है, जो कम पड़ रहा है ज़िन्दगी में.........