शनिवार, 17 जुलाई 2010

दफ़्न होती धरोहर

संग्रहालयों और अलमारियों में दफ़्न हिंदी की इन धरोहरों को दम तोड़ते देख मन सिहर जाता है .
कभी इन राद्दियों में हम भी ज्ञान तलाशते थे वो ज़माना याद आता है .
याद आते हैं वो किस्से कविता जिनसे हमने गाना सिखा जीना सिखा , सिखा मतलब हिन्दोस्तान का ,
सोच बदली इंसा बदले , बदल गया चेहरा हिन्दोस्तान का ,
बेशक बदलाव जरुरी है पर यहाँ तो बदल गया मकसद हिन्दोस्तान का,
शहरी को हिंदी तो ग्रामीण को इंग्लिश नहीं आती ,
बंट गया है हिन्दोस्तान दो भागोमें हिंदी और इंग्लिश के इलाकों में ,
पहले भी कई बार बंटा है हिन्दोस्तान  ,
पर बंटवारों की इस जद्दोजहद में हर बार पिस्ता है इंसान ,
साखी हैं वो जिसने देखा है वो तबाही का मंज़र ,
कैसे भाई ने भाई को चुभोई थी खंजर ,
संग्रहालयों में पड़ी किताबों पर जमी धुल की परतें बयां कर रही हैं ,
दास्ताने हिन्दोस्तान की  न हो जाए इन किताबों का हाल ,
उन लाश की तरह जो गुमनाम दफ़्न हो गई हैं वक़्त की दरख्तों में या किसी जले ख्वाब की तरह........

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