बुधवार, 20 जनवरी 2010
मुंबई की गुहार
दफन होती जा रही है , मेरे लाल की मासूमियत मेरा कलेजा धड़क रहा है। अनमोल जीवन की क्यों बलि चढ़ा रहे हो ?भीतर तुम्हारे क्या शोला भड़क रहा है ?मेरे लाल कभी न थे इतने बुझदिल । हौंसला इनका अब क्यों तड़क रहा है ?झेल कर शूल सी चुभन भी ,सह कर ज्वाला सी जलन भी,जो अब जाकर फुल और कनक बने है । उन्ही के नाम का डंका कड़क रहा है । गगन से ऊँची मंज़िल है तेरी , उस ऊँची मंज़िल को छूने को तेरा मन अपने पंख फड़क रहा है ।
सोमवार, 18 जनवरी 2010
हसरतें
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
वक़्त वक़्त की बात
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
अतीत की समझ
दुनिया बदली, इन्साँ बदले, धरती भी अपनी चुनर बदल रही है।
परत दर परत अंचला अपनी सूरत बदल रही है।
कितनी बेगानी है , दुनिया जो खुद के अतीत से अनजान इतिहास में अपना जीवन मसल रही है।
पांच पीढ़ी ऊपर का तो हमें पता नहीं , फिर भी खंगालते हैं अपने अस्तित्व को हज़ारों साल पुरानी किताबों में
सच सामने मायूस खड़ा है,
झूठ उसकी हंसी उड़ा रहा है।
विज्ञान से फायदा तो ठीक है , पर वो कबूल नहीं
क्योंकि अक्ल में बेड़ी पड़ी है
टूटती नहीं धारणा अपनी , सदियों की कड़ी टूट रही है।
प्यास धरा की अब भड़क रही है , बुझेगी ये अतीत में जाकर
गगन भी इसमें मदद करेगा ...इन्साँ से नहीं ये , जो अपने अतीत भुला बैठे हो .....
परत दर परत अंचला अपनी सूरत बदल रही है।
कितनी बेगानी है , दुनिया जो खुद के अतीत से अनजान इतिहास में अपना जीवन मसल रही है।
पांच पीढ़ी ऊपर का तो हमें पता नहीं , फिर भी खंगालते हैं अपने अस्तित्व को हज़ारों साल पुरानी किताबों में
सच सामने मायूस खड़ा है,
झूठ उसकी हंसी उड़ा रहा है।
विज्ञान से फायदा तो ठीक है , पर वो कबूल नहीं
क्योंकि अक्ल में बेड़ी पड़ी है
टूटती नहीं धारणा अपनी , सदियों की कड़ी टूट रही है।
प्यास धरा की अब भड़क रही है , बुझेगी ये अतीत में जाकर
गगन भी इसमें मदद करेगा ...इन्साँ से नहीं ये , जो अपने अतीत भुला बैठे हो .....
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