शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

अतीत की समझ

दुनिया बदली, इन्साँ बदले, धरती भी अपनी चुनर बदल रही है।
परत दर परत अंचला अपनी सूरत बदल रही है।
कितनी बेगानी है , दुनिया जो खुद के अतीत से अनजान इतिहास में अपना जीवन मसल रही है।
पांच पीढ़ी ऊपर का तो हमें पता नहीं , फिर भी खंगालते हैं अपने अस्तित्व को हज़ारों साल पुरानी किताबों में
सच सामने मायूस खड़ा है,
झूठ उसकी हंसी उड़ा रहा है।
विज्ञान से फायदा तो ठीक है , पर वो कबूल नहीं
क्योंकि अक्ल में बेड़ी पड़ी है
टूटती नहीं धारणा अपनी , सदियों की कड़ी टूट रही है।
प्यास धरा की अब भड़क रही है , बुझेगी ये अतीत में जाकर
गगन भी इसमें मदद करेगा ...इन्साँ से नहीं ये , जो अपने अतीत भुला बैठे हो .....

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