बुधवार, 20 जनवरी 2010

मुंबई की गुहार

दफन होती जा रही है , मेरे लाल की मासूमियत मेरा कलेजा धड़क रहा है। अनमोल जीवन की क्यों बलि चढ़ा रहे हो ?भीतर तुम्हारे क्या शोला भड़क रहा है ?मेरे लाल कभी न थे इतने बुझदिल । हौंसला इनका अब क्यों तड़क रहा है ?झेल कर शूल सी चुभन भी ,सह कर ज्वाला सी जलन भी,जो अब जाकर फुल और कनक बने है । उन्ही के नाम का डंका कड़क रहा है । गगन से ऊँची मंज़िल है तेरी , उस ऊँची मंज़िल को छूने को तेरा मन अपने पंख फड़क रहा है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें