शनिवार, 20 नवंबर 2010

हर सवेरे में नज़र आएंगे


न ज़लज़ला आएगा, न सैलाब उमड़ेगा, 
न ये दुनिया नष्ट हो जाएगी मेरे जाने के बाद,
लोग कुछ रोज़ रो कर मुझे भूल जाएंगे,
किसी के आंसू में मेरे देखे ख़्वाब धुल जाएंगे,
मत अफ़सोस करना मेरे जाने बाद,
मुझे जो करना था मैं कर गया हूं,
ये न कहना वक़्त से पहले मर गया हूं,
मैंने जो किया रूबरू तुम्हारे शामों सहर आएंगे, 
हम सितारा बन के रातों को नहीं चमकेंगें आसमान में, 
हम तो आफ़ताब हैं हर सवेरे में नज़र आएंगे.

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

कल के ख्वाबों में आज धुआं होता है



कल के ख्वाबों में आज धुआं होता है ,
पर ये रूठा ख़ाब पूरा कहाँ होता है ,

जल जाती है कल के सपनों में आज की हकीक़त ,
अपनो के आंसू में सिसक कर ये अरमान जवां होता है , 

बेशक ख़ाब उसे देखने वालों के ही पुरे होते हैं ,
पर इसे पूरा करने की भगदड़ में हमें चैन कहाँ होता है, 

जितना है उतने में ही नहीं खुश होने देता ये ख़ाब हमें,
स्वार्थ और लालच को ये और बढा देता है ,

कल के ख्वाबों में आज धुआं होता है ,
पर ये रूठा ख़ाब पूरा कहाँ होता है ,

चुरा लेता है रातों की नींद जीतेजी ये जन्नत भी दिखा देता है, 
उस ख़ाब को गोली मार दो जो कंभख्त हमें गुमराह बना देता है, 

सही वक़्त पर बाहर निकाल लो अपने आप को उस ख़ाब से ,
जो मार भी देता है तुम्हे जीना सिखा देता है ,

कल के ख्वाबों में आज धुआं होता है ,
पर ये रूठा ख़ाब पूरा कहाँ होता है ,

लाखों मुस्कान दबी पड़ी हैं  इस ख़ाब के बोझ तले, 
पर हमें दर्द से कराहती इन मुस्कान को सहलाने का वक़्त कहाँ होता है,

अंत में जब ख़ाब के इस रंगमंच से पर्दा गिरता है,
ये ख़ाब किसी और की आँखों में जाकर रंग बदल लेता  है ,
हम धुंधली आँखों से देखते हैं  अपनी बिलखती मुस्कानों को , 
जो कभी हकीक़त का मंज़र था अब अफसानों  में बयाँ होता है  ,

कल के ख्वाबों में आज धुआं होता है ,
पर ये रूठा ख़ाब पूरा कहाँ होता है ....

 

शनिवार, 17 जुलाई 2010

दफ़्न होती धरोहर

संग्रहालयों और अलमारियों में दफ़्न हिंदी की इन धरोहरों को दम तोड़ते देख मन सिहर जाता है .
कभी इन राद्दियों में हम भी ज्ञान तलाशते थे वो ज़माना याद आता है .
याद आते हैं वो किस्से कविता जिनसे हमने गाना सिखा जीना सिखा , सिखा मतलब हिन्दोस्तान का ,
सोच बदली इंसा बदले , बदल गया चेहरा हिन्दोस्तान का ,
बेशक बदलाव जरुरी है पर यहाँ तो बदल गया मकसद हिन्दोस्तान का,
शहरी को हिंदी तो ग्रामीण को इंग्लिश नहीं आती ,
बंट गया है हिन्दोस्तान दो भागोमें हिंदी और इंग्लिश के इलाकों में ,
पहले भी कई बार बंटा है हिन्दोस्तान  ,
पर बंटवारों की इस जद्दोजहद में हर बार पिस्ता है इंसान ,
साखी हैं वो जिसने देखा है वो तबाही का मंज़र ,
कैसे भाई ने भाई को चुभोई थी खंजर ,
संग्रहालयों में पड़ी किताबों पर जमी धुल की परतें बयां कर रही हैं ,
दास्ताने हिन्दोस्तान की  न हो जाए इन किताबों का हाल ,
उन लाश की तरह जो गुमनाम दफ़्न हो गई हैं वक़्त की दरख्तों में या किसी जले ख्वाब की तरह........

गुरुवार, 11 मार्च 2010

कचरे में रोटी की तलाश


चले तो थे हम सफ़र में देखने की मुश्किलों में लोग कैसे जीतें हैं ?
पर उनकी मुश्किलों को देखकर लगा की इसके साथ वो कैसे जीते हैं ?
कचरे में रोटी की तलाश में दिन निकलता है, और कचरे में ही रात होती है। कई रोज़ पेट तो भर जाता है पर निगाहें उदास होती है ........क्यों ? पता नहीं।
मुलभुत सुविधाओं से वंचित इनके नरक में जीने का कौन जिम्मेदार है ? हम ये क्यूँ सोचे ?
गर ये न करे ये काम तो शहर का क्या होगा ? शायद कोई और करे पर हम तो नहीं करेंगे।
खुदके पेट के लिए ये काम करते हैं पर फायदा तो ये हम सब के लिए कर रहे हैं ।
इससे हमें क्या ? मजबूर निगाहें कई दिन कचरा न मिलने पर रोटी के इंतज़ार में भूखे भी सो जाती है .....तो हम क्या करे ?

कितने निर्दई हैं हम इनके प्रति ............इनका इस्तेमाल कर हम खुश हैं पर इन्हें इनका हक नहीं दिलाना चाहते।
खुद के अधिकार से अनजान ये लोग भी अपना हक नहीं जानते जिसका फायदा निरंतर उठाया जाता रहेगा ........तो हम आपकों घबराने की जरुरत नहीं है,क्योंकि ये बिचारे गंवार लोग इतने चलाख नहीं है की अपना शोषण रोक सके।
ध्यान से सोचे तो ये लोग जानबुझ कर ऐसा कर रहे है ताकि ये ही लोग इसमें रहे हम आप न आए तो क्या अब आपका नजरिया बदलेगा इनके प्रति ?



बुधवार, 20 जनवरी 2010

मुंबई की गुहार

दफन होती जा रही है , मेरे लाल की मासूमियत मेरा कलेजा धड़क रहा है। अनमोल जीवन की क्यों बलि चढ़ा रहे हो ?भीतर तुम्हारे क्या शोला भड़क रहा है ?मेरे लाल कभी न थे इतने बुझदिल । हौंसला इनका अब क्यों तड़क रहा है ?झेल कर शूल सी चुभन भी ,सह कर ज्वाला सी जलन भी,जो अब जाकर फुल और कनक बने है । उन्ही के नाम का डंका कड़क रहा है । गगन से ऊँची मंज़िल है तेरी , उस ऊँची मंज़िल को छूने को तेरा मन अपने पंख फड़क रहा है ।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

हसरतें



हसरते बढ़ती जाती है , आरज़ू दगा कर जाती है ,खुदा की नेमत कम पड़ जाती है ,तब यादों के समंदर में हिचकोले लेती लहरे ,हमें हर घडी तड़पा जाती है। उस वक़्त हम किसी के ख़यालों में होते हैं और हमें किसी की याद आ जाती है ।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

वक़्त वक़्त की बात


तरकस के तीर को छलनी होने वाले के दिल का पता नहीं होता ,
हर किसी को मयस्सर मुक्कमल नसीब नहीं होता।
जिसके सर पर छत हो छेद वाली,
उस पर इन्द्र राज का रहम नहीं होता।
बेरहम बेदर्द इस दुनिया में ,
सब वक़्त की वक़्त की बात है वर्ना,
न किसी के आप होते हैं और कोई आपका नहीं होता।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

अतीत की समझ

दुनिया बदली, इन्साँ बदले, धरती भी अपनी चुनर बदल रही है।
परत दर परत अंचला अपनी सूरत बदल रही है।
कितनी बेगानी है , दुनिया जो खुद के अतीत से अनजान इतिहास में अपना जीवन मसल रही है।
पांच पीढ़ी ऊपर का तो हमें पता नहीं , फिर भी खंगालते हैं अपने अस्तित्व को हज़ारों साल पुरानी किताबों में
सच सामने मायूस खड़ा है,
झूठ उसकी हंसी उड़ा रहा है।
विज्ञान से फायदा तो ठीक है , पर वो कबूल नहीं
क्योंकि अक्ल में बेड़ी पड़ी है
टूटती नहीं धारणा अपनी , सदियों की कड़ी टूट रही है।
प्यास धरा की अब भड़क रही है , बुझेगी ये अतीत में जाकर
गगन भी इसमें मदद करेगा ...इन्साँ से नहीं ये , जो अपने अतीत भुला बैठे हो .....